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Friday, March 11, 2016

नपुंशक

आज कल शिक्षा का क्षेत्र  काफी विकसित हो गया है । जो समय की मांग है । वही इस शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाले भरपूर सेवा का योगदान नहीं देते है । सभी को सरकारी नौकरी ही चाहिए , वह भी आराम की तथा ज्यादा सैलरी होनी चाहिए किन्तु अपने फर्ज निभाते वक्त आना कानी करते है । कई तो कोई जिम्मेदारी निभाना ही नहीं चाहते । किस किस विभाग को दोष दूँ समझ में नहीं आता । ऐसा हो गया है की सरकारी बाबुओ और अफसरों के ऊपर से विश्वास ही उठता जा रहा है । आज हर कोई किसी भी विभाग  में किसी कार्य के लिए जाने के पहले ही यह तय करता है कि उसका कार्य कितने दिनो में संपन्न होगा और उसे कौन कौन सी बाधाओं का सामना करना पड़ेगा  । वह दोस्तों से अधिक जानकारी की भी आस लगाये रखता है  ।

क्या यह सब सरकारी विफलताओं को दोष देने से दूर हो जायेगा ? कतई नहीं । हम सभी का सहयोग बहुत जरुरी है । बच्चे का जन्म होते ही उसकी जिम्मेदारिया बढ़नी शुरू हो जाती है । वह किसी की अंगुली पकड़ कर चलने का प्रयास करता है । उसे अपने माता -पिता के प्यार से आगे की कर्मभूमि का ज्ञान शिक्षण संस्थाओ से मिलता है । उस ज्ञान का दुरूपयोग या उपयोग उसके शैक्षणिक  शक्ति पर निर्भर करता है । पुराने ज़माने में गुरुकुल या छोटे छोटे स्कुल हुआ करते थे । हमने देखा है उस समय  शिक्षक और शिष्य में एक अगाध प्रेम हुआ करता था । दोनों एक दूसरे की इज्जत करते थे । मजाल है की शिष्य गुरु के ऊपर कोई आक्षेप गढ़ दे या गुरु शिष्य पर क्यों की आपसी मेल जोल काफी सुदृढ़ होते थे । उस समय नैतिक विचार नैतिक आचरण सर्वोपरि थे । छोटे बड़ो की इज्जत और बड़े छोटे को भी सम्मान देते थे । कटुता और द्वेष का अभाव था । ऐसे गुरुकुल या शिक्षण स्कुल से निकलकर आगे बढ़ने वालो के अंदर एक उच्च कार्य करने की क्षमता थी । शायद ही कभी कोई किसी को शिकायत का अवसर देता था । इस तरह एक स्वच्छ समाज और देश का निर्माण होता था । 

आज कल की दुर्दसा देख रोने का दिल करता है । शैक्षणिक संस्थान व्यवसाय के अड्डे बनते जा रहे है । शिक्षा के नाम पर कोई सम्मान जनक सिख तो दूर समाज को बर्बादी के रास्ते पर चलने को उकसाए जा रहे है । शैक्षणिक संस्थान रास लीला , नाच और गान के केंद्र बनते जा रहे है । नयी सोंच और नयापन इतना छा गया है कि कभी कभी बेटे  बाप को यह कहते हुए शर्म नहीं करते कि चुप रहिये आप को कुछ नहीं पता । अब आप का जमाना नहीं है । पिता के प्रति पुत्र का आचरण आखिर समाज को किधर मोड़ रहा है । बलात्कार , देश के प्रति अनादर , व्यभिचार समाज में इतना भर गया है और हम नैतिक रूप से इतने गिर गए है कि अगर कोई बहन को भी लेकर बाहर निकले तो देखने वाले तरह तरह के विकार तैयार कर लेते है , फब्तियां कसेंगे देखो किसे लेकर घूम रहा है। ऐसा नहीं है  की सभी ऐसे ही है पर अच्छो की संख्या नगण्य है । उनको कोई इज्जत नहीं मिलती । 

हमारे रेलवे में दो रूप है । प्रशासक और कर्मचारी । आज सभी शिक्षित है चाहे जिस किसी भी रूप में कार्यरत हो ।कर्मचारियों को हमेशा उत्पादन देना है जिसे वे हमेशा जी जान से पूरा करते है चाहे दस आदमी का कार्य हो और उस दिन 5 ही क्यों न हो । इस असंतुलन से कर्मचारी सामाजिक  , पारिवारिक , धार्मिक और राजनितिक उपेक्षा से प्रभावित हो जाते है । क्या एक कर्मचारी किसी गदहे जैसा है ? जो मालिक को खुश करने के लिए अपना सब कुछ समर्पण कर देता है । क्या कहे हम तो मजदूर है नीव की ईंट से लेकर  भवन के कंगूरे को सजाते है । फिर भी हमारी जिंदगी नीव की ईंट के बराबर ही है  । सभी कंगूरे की सुंदरता देखते है नीव की ईंट पर किसी का ध्यान नहीं जाता । शायद उन्हें नहीं मालूम की यह भव्य सुंदरता नीव की ईंट पर ही ठहरी है ।प्रशासक उन उच्च श्रेणी में आते है जो हमेशा  कर्मचारियों पर बगुले की तरह नजर गड़ाये रहते है । इन्हें विशेषतः उत्पादकता को बढ़ाना तथा कर्मचारियों के कल्याणकारी योजनाओ को सुरक्षित रखना होता है  । जो एक क़ानूनी दाव पेंच के अंदर क्रियान्वित होता या करना पड़ता  है । यह भी एक जटिल क़ानूनी प्रक्रिया के अनुरूप होता है । लेकिन ज्यादातर देखा गया है की प्रशासक इस क़ानूनी प्रक्रिया का दुरूपयोग करते  है जिससे उनकी स्वार्थ सिद्धि हो सके । मेरा अपना अनुभव है की अच्छे प्रशासक बहुत कम हुए है और है । आज कल इन्हें अपने को दायित्वमुक्त व् फ्री रखने की आदत बन गयी है । ये सब उपरोक्त सड़ी हुयी शिक्षा का असर ही तो है । कौन अच्छा अफसर है ? आज कल समझ पाना बड़ा मुश्किल है । आम आदमी यही सोचता है की चलो ये अफसर ख़राब है तो अगला अच्छा है , आगे बढे। काम जरूर हो जायेगा । किन्तु सच्चाई कुछ और ही होती है । 

इसे आप क्या कहेंगे ? 

उस दिन जब बंगलुरु स्टेशन पर  बॉक्स पोर्टर ने मेरे बॉक्स को पटक कर बुरी तरह से तोड़ दिया था । जुलाई 2015 की घटना है । मैंने इसकी सूचना सभी को दी चाहे मेरे मंडल का अफसर हो या बंगलुरु का । फिर भी कोई कार्यवाही नहीं हुयी । मुझे संतोष नहीं हुआ और मैंने फिर एक लिखित शिकायत मंडल रेल मैनेजर बंगलुरु को भेजा । इसकी कॉपी अपने मंडल रेल मैनेजर को व्हाट्सएप्प से भेजा । फिर भी कोई न कारवाही हुयी और न enquiry । शायद छोटी और अपने स्टाफ की शिकायत समझ इस पर कोई कार्यवाही करना किसी ने उचित नहीं समझा । अगर वही हमसे कोई गलती हो जाय तो हमें नाक पकड़ कर बैठाते है । उस पर धराये लगाकर सजा की व्यवस्था तुरंत करते है क्यों की उनके लिए ये आसान है । ऐसे समाज और कार्यालयों  की त्रुटियों को आखिर बढ़ावा कौन दे रहा है ।  शायद हमारे सड़ी हुयी शिक्षा का प्रभाव है । जिसे इन नपुंशक अफसरों की वजह से औए बढ़ावा मिलता है और एक दिन यह एक नासूर बन जाता है । आज कल ऐसे नासूरों का इलाज करना अति आवश्यक हो गया है । आखिर इसका इलाज कौन करेगा ? 

आज हमारे नए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के कुछ कार्यक्रमो से काफी खुश हूँ क्यों की इन नपुंशको को  एक सठीक इलाज मिलने वाली है । रेलवे ने फिल्ट्रेशन शुरू कर दी है इसके अंतर्गत उन अफसरों पर गाज गिरेगी और उन्हें CR के अंतर्गत निकाल दिया जायेगा जिन्होंने 30 वर्ष सर्विस या 55 वर्ष की उम्र को पूरी कर ली है तथा अच्छे रिकार्ड नहीं है । काश ऐसे नपुंशको पर जल्द गाज गिरे । समाज बहुत सुधर जायेगा और कर्मठ कर्मचारियों के जीवन में एक नए सबेरे का उदय होगा ।

कर्मठ और मेहनत कश मजदूरो को नमस्कार । यह लेख उन मेहनती  कर्मचारी समूह को समर्पित है ।



Saturday, December 5, 2015

प्रकोप

जीवन संघर्ष का नाम है तो मृत्यु चिर बिश्राम । यही जीवन का यथार्थ है । जन्मते ही मृत्यु की तरफ अग्रसर होना एक चिंता का विषय हो सकता है पर कुछ कर सकने के लिए दिनोदिन समय का अभाव भी तो है । जीवन  - मृत्यु की सच्चाई हमारे सामने मुंह बाये खड़ी रहती है और हम है जो व्यर्थ के कामो में समय बर्बाद कर रोते रहते है । आंसुओ की धारा हमारे अभाव को कभी नहीं धो सकती । अभाव को आत्मशक्ति और कुछ कर सकने की सबल इच्छा शक्ति ही पार लगा सकती  है । हँसने वाले का साथ सभी देते है रोने वाले का साथ बहुत कम ।

हम कितने स्वार्थी होते है जब अपने स्वार्थ में बशीभूत हो दूसरे के अधिकारो को मसलने में थोडी भी सकुचाहट महसूस नहीं करते । आज के परिप्रेक्ष्य में ऐसे स्वभाव लोकतंत्र के पर्याय नहीं हो सकते । लोकतंत्र हमें दुसरो के अधिकारो की ऱक्षा के लिये वाध्य करता है । अन्यथा प्रकोप अतिसंभव । 

30 सितम्बर 1993 की वो डरावनी रात । आज भी याद है । प्रकोप को कुछ भी नजर नहीं आता । न धर्म की पहचान न इंसान की न ही किसी के स्वाभिमान की । सभी कुछ इसके चपेट में आकर नष्ट हो जाते है । जो शेष  बच जाते है उनके पास रोने और बोने के सिवा कुछ नहीं बचता । उस रात मैं रायचूर में कार्यरत था । नाईट ड्यटी में तैनात था । अपने ऑफिस यानी लॉबी में कुर्सी पर बैठे क्रू पोजीशन की लेख जोखा देख रहा था । करीब रात के दो बज रहे होंगे । प्लेटफॉर्म पर सन्नाटा छाया हुआ था । कोई ट्रेन आने वाली नहीं थी । सिर्फ चेन्नई एक्सप्रेस के क्रू को तीन बजे कॉल सर्व करना था । कॉल बॉय पास के बेंच पर सो रहा था करता भी क्या । यह भी स्वस्थ रहने का एक सदुपयोग है ।

अचानक मुझे जोर का झटका लगा और जैसे मेरे कुर्सी को कोई पकड़ कर हिला रहा हो । मैंने समझा की कॉल बॉय मेरे कुर्सी को झकझोर रहा है । मैं बुक में कुछ लिखते हुए ही जोर से डपट लगायी  । अरे ये क्या कर रहे हो । फिर मुड़ कर देखा , कॉल बॉय अपने बेंच पर इतमिनान से सो रहा था । पीछे मुड़ कर देखा वहा भी कोई नहीं था । स्टेशन में किसी ट्रेन के आने की आवाज सुनाई दी । पर कोई ट्रेन नहीं आई ।शरीर में थोड़े समय के लिए सिहरन पैदा हो गयी । शायद कोई शैतानी प्रकोप तो नहीं । तभी कंट्रोल रूम का फोन बजा । कंट्रोल साहब ने पूछा - रायचूर में भूकंप आया है क्या ? मैंने कहा नहीं पर हाँ  जोर की ध्वनि और कुर्सी जरूर हिलते हुए महसूस किया हूँ । कंट्रोलर ने कहा यही तो भूकंप के झटके है ।

जी हाँ जो भी महसूस हुआ था वह भूकंप ही था । चारो तरफ समाचार फ़ैल गया । दूसरे दिन सभी समाचार पत्रो  ने बिस्तृत रिपोर्ट छापे । महाराष्ट्र के लातूर में इस भूकंप से काफी तबाही हुयी थी । सरकार बचाव कार्य में जुट  चुकी थी । बहुत जान माल की नुकशान हुई थी । महाराष्ट्र और आस पास के राज्यो में सतर्कता की सूचना दे दी गयी । एक सप्ताह तक सभी पडोसी  राज्यो के लोग रात को घर के बाहर सोते रहे  । अंततः ये प्रकोप की घटनाये होती क्या है ? बिज्ञान ने इसे  तरह तरह के क्रिया और प्रक्रिया  के परिणाम बताते रहे है । कुछ ईश्वरीय गुस्सा । जो कुछ भी हो इतना तो सत्य है जो बोएगा वही काटेगा । कुछ तो है जो हमें हमारे कर्मो की सजा देता है । मनुष्य की शक्ति के आखिरी छोर के बाद ही तो वह है जिसे ईश्वर के नाम से जानते है । जिसकी शक्ति अनंत और अंतहीन है । मानो तो देव नहीं तो पत्थर ।

Thursday, July 9, 2015

एक कप चाय

हमारे हिन्दू धर्म में सात का बहुत महत्त्व है । सात फेरे हो या सात दिन . सात जन्म हो या सात समंदर । वगैरह वगैरह । हमारे लिए भी सात वही महत्त्व रखता है । परम्पराये जीवित है ।जो समझते है उनके लिए बहुत महत्त्व रखती है । घडी की सुई निरंतर अंको को रौंदती रहती है और बार बार समय की अनुमान प्रस्तुत करती है । क्या घडी की सुई ही एक मात्र साधन है जो समय बताती है ?

जी नहीं मैं ऐसा नहीं समझता । हमारे आस पास घटित सभी घटनाये कुछ न कुछ सूचनाये देती है । बशर्ते हम उनका अवलोकन और समीक्षा करे । आईये ऐसी ही एक घटना पर नजर डाले ।

दिनांक 7 जुलाई 2015 की बात है । मैं सिकंदराबाद से राजधानी कार्य करने के लिए तैयार था । मेरा को - लोको पायल एम् वि कुमार थे । ड्यूटी में ज्वाइन होने के पूर्व किचन की तरफ मुड़े । शायद कुमार को चाय पिने की चस्का ज्यादा है । कुमार ने कूक से एक कप चाय मांगी । मैं और हमारे गार्ड दोनों बगल में ही खड़े थे । कूक ने एक कप चाय कुमार को पकड़ाया । कुमार ने चाय के कप को मेज के ऊपर रखनी चाही । लेकिन असुरक्षित । चाय का प्याला लुढक गया । पूरी की पूरी चाय मेज पर पसर गयी ।

ओह । मेरे मुह से ये शव्द यू ही निकाला । लगता है आज कुछ  होने वाला है ? आज सतर्क रहना पड़ेगा । गार्ड ने सहमति जाहिर की किन्तु कुमार ने अविश्वास मे सिर हिलाकर नाकारात्मक विचार प्रकट किये । ये सब बहम है । लेकिन मैं परिस्थितियों को उपेक्षित नहीं समझता । शांत रहा ।

हमें राजधानी के समय पर आने की सूचना दी गयी थी । किन्तु ट्रेन  लेट आई और एक घने लेट सिकंदराबाद से रवाना हुई । मैंने सफ़र के दौरान करीब आध घंटे तक विलम्ब कम कर लिया । आशा थी गुंतकल समय से आगमन होगी ।काश मन के विचार समय से मेल खाते । राजधानी को चितापुर स्टेशन में सिग्नल नहीं मिला । एक लोरी फाटक के बैरियर में अटक गई थी । मास्टर को गेट बंद करने में परेशानी हो रही थी । अंततः राजधानी एक्सप्रेस को 58 मिनट होम सिगनल पर सिगनल के लिए इंतजार करना पड़ा । जो कुछ भी बिलंब कम हुआ था वह फिर बढ़ गया । मैंने कुमार को याद दिलाया । देख लिए न मैंने किचन के सामने क्या कहा था ? कुमार निरुत्तर सा रह गए । खैर अभी भी यात्रा काफी बाकी है ।

चलते चलते समय बदलती रहती है । काश अपशगुन भी बदल जाते । अब अदोनी आ रहा था । राजधानी गाड़ी को अदोनी में रुकना पड़ा । स्टेशन मैनेजर ने सतर्कता आदेश भेजा जिसके अनुसार हमें अदोनी और नगरुर स्टेशन के बिच सतर्क होकर वाकिंग गति से जाना चाहिए क्यों की शोलापुर का चालक किसी अप्रिय हलचल की सूचना दी थी । जो पीछे वाली गाड़ी के लिए अप्रिय या असुरक्षित हो सकता है । हमारे लोको में इंजीनियरिंग स्टाफ भी आये । इस तरफ सतर्कता आदेश की पालन करते हुए 6 मिनट की सफ़र के लिए 30 मिनट लगा । मैंने कुमार को किचन वाली चाय की याद दिलाई । इस बार वे शांत रहे जैसे मेरी बातो में कुछ तो है जिसे इंकार नहीं किया जा सकता ।

आखिर कार हमें यात्रा  के दौरान दो विभिन्न घटनाओ से सामना करना पड़ा । जिसकी सूचना चाय की प्याली ने दे दी थी । आप हंसेंगे , न मानेंगे कोई बात नहीं । अपनी अपनी मन पसंद है ।जो पढ़ेगा वही पास होगा ।

Thursday, May 14, 2015

अनहोनी

13 मार्च 2015 । अलार्म बजने लगा था । तुरंत उठ गया और पास में सोये हुए जुबेदुल्ला जी को भी उठाया । शायद गुंतकल आने वाला था । अलार्म भी इसीलिए तो सेट किया था । हम दोनों बैठ गए । तभी जुबेदुल्ला जी का मोबाइल बज उठा । उन्होंने काल रिसीव किया । कुछ हलकी सी बाते हुयी । मैंने पूछा - किसका काल था ? ऐसेमेल राम का । फिर उदासी भरे लहजे में बोले - एक और spad हो गया । कहाँ ? अचानक मेरे शव्द निकले । उन्होंने कहा - इसी ट्रेन का यानि गरीब रथ एक्सप्रेस का और इसके लोको पायलट शेर खान । मेरे मुह खुले रह गए । आश्चार्य और दुःख , विषाद चेहरे पर फ़ैल गया ।कुछ विश्वास नहीं हो रहा था । ट्रेन प्लेटफॉर्म पर लग रही थी । हमने लोको के नजदीक जाने की तैयारी की जिससे इस ट्रेन के लोको पायलट से कुछ जानकारी ली जा सके ।

हम लोको के पास पहुंचे । यह क्या ? ट्रेन का लोको पायलट कोई और था । अब किसी अविश्वास की कोई गुन्जाईस  नहीं थी । हमने इस लोको पायलट से पूछा ? उसने भी घटना को सही बताया । लोको पायलट के जीवन की सबसे दुष्कर वक्त इससे ज्यादा कोई नहीं है । Spad के बाद वह असहाय हो जाता है । कोई भी उसकी हमदर्दी में सहयोग नहीं देता । सिवा कुछ लोको पायलटो के अपने संघठन के । इसी लिए सर्वथा कहते सुना जाता है की एक लोको पायलट हजारो की जाने बचा सकता है पर हजार एक साथ मिलकर एक लोको पायलट को जीवन दान नहीं दे सकते । ये कैसी विडम्बना है ?

कहते है तकदीर से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता । वाकई सही है । कल ही सिकंदराबाद रनिंग रूम में हम एक साथ चाय पिए थे । बातो - बातो में मैंने शेरखान से पूछ था की कब पार्टी दे रहे हो ? उन्होंने अत्यधिक ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा था । पार्टी जरूर दूंगा वह भी इसी माह में । ओफ्फिसियल पत्र जल्द आने वाला है । हमने भी ख़ुशी जताई ।

शेरखान लारजेश स्किम के तहत रिटायर होने वाले थे । वह भी इसी माह में क्योकि उनके बेटे का चयन की परिक्रिया पूरी हो गयी थी । शेरखान के बेटे की बहाली सहायक लोको पायलट के रूप में होनेवाली तय  थी और उन्हें वीआरएस । शेरखान के लिए अब सारे सपने अधूरे शाबित होंगे यदि रेलवे प्रशासन कठोर कार्यवाही करती है । आज कल spad की घटनाओ में लोको पायलट को सर्विश से हाथ धोना पड़ता है । ऐसी कठोर सजा और कहीं नहीं मिलती ।

लोको पायलट का जीवन कोल्हू के बैल जैसा है । रेलवे उसे मनमानी ढंग से उपयोग करती है । न रात को चैन न ही दिन में । बिना मांगे साप्ताहिक अवकाश भी दूर । तीज त्यौहार की क्या कहने ।आप अपने बर्थ पर आराम से सोते है । लोको पायलट रात भर पलक झपकाये बिना आप को आपके मंजिल तक सुरक्षित पहुंचाते है । और भी बहुत कुछ जो छुपी हुयी है । क्या आपने कभी लोको पायलटो के जीवन में झांकने की कोशिश की है ? अगर नहीं तो हर व्यक्ति को जाननी चाहिए ? एक बार सोंच कर तो देंखे यदि आप एक लोको पायलट होते ?

आज शेरखान ससपेंड है । विभागीय ऑफिसर से मिला और शेरखान के केश को सहानुभूति पूर्वक संज्ञान में लेने की अनुरोध भी कर चूका हूँ  । विभागीय अफसर से सकारात्मक उत्तर मिला  है । प्रशासनिक कार्यवाही जारी है । देखना है समय की छड़ी किस आवाज से पुकारती है  ।

हम लोको पायलटो की संवेदना उनके साथ है । हम लोको पायलट कर्मठ भी और असुरक्षित ।

Wednesday, January 21, 2015

ऐसा भी होता है ।

दिसंबर का महीना था ।कड़ाके की सर्दी । कुहासे की वजह से रेल गाड़ियों के आवा जाही पर असर पड़ा था । यानि  दिनांक 15 और वर्ष 2014 । आज रिफ्रेशर क्लास का आखिरी दिन था । वक्त गुजरता जा रहा था ।समय जैसे ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था । सभी को , जिन्हें ट्रेन पकड़नी थी उन्हें एक ही चिंता  सता रही थी की कब रिलीफ पत्र मिलेगा । मैं भी उसमे से एक था । शाम को करीब पौने पाँच बजे रिलीफ पत्र मिला । जैसे - तैसे हास्टल को भागे । पहले से  ही पर्सनल सामान सहेज के रख दिया था । राजधानी का समय हो चला था । भागते हुए काजीपेट के प्लेटफॉर्म संख्या दो पर पहुंचे  । तब तक राजधानी एक्सप्रेस जा चुकी थी । अनततः ईस्ट कॉस्ट एक्सप्रेस से हैदराबाद के लिए रवाना हुवे ।

हैदराबाद से गुंतकल के लिये  कोल्हापुर एक्सप्रेस जाती है । उसमे हम सभी का रिजर्वेशन था । रात ग्यारह बजे ट्रेन को प्लेटफॉर्म में लगाया गया । मेरे साथ कई लोको पायलट थे । मुझे नींद आ रही थी । अतः बिना देर किये , अपने 2 टायर कोच में पवेश किया । मेरा लोअर बर्थ था । मेरे सामने के ऊपरी बर्थ पर एक बुजुर्ग अपने बिस्तर को सहेज रहे थे ।अपने सामानों को सुव्यवस्थित रख , थोड़े समय के लिए टॉयलेट या   बाहर चले गए । 

कुछ समय के उपरान्त लोको पायलट मुरली आ धमाके । मैंने पूछा _ आप की बर्थ कौन सी है ? उन्होंने  मेरे सामने की ऊपर वाली बर्थ की तरफ इशारा किया । मैंने कहाकि उसपर एक बुजुर्ग है । गलती से आया होगा , कहते हुए बुजुर्ग के बैग को मुरली जी ने निचे रख दिए और  मेरे बगल में ही बैठ गए । हम एक दूसरे से वार्तालाप में व्यस्त थे । तभी वह बुजुर्ग आये । अपने बैग को बर्थ से गायब देख , जोर से चिल्लाने लगे । मेरा बैग कहा गया ? मुरली जी ने उसके तरफ रुख करते हुए जबाब दिया की  आप का बैग यहाँ निचे है । अब तो वह बुजुर्ग आप से बाहर हो गए और बोले किसने यहाँ रखी ? मुरली ने तुरंत स्वीकारते हुए कह दी _ मैंने रखी है ये बर्थ मेरा है । बुजुर्ग कंट्रोल से बाहर । मुरली के तरफ इशारा करते हुए  बोले _ मेरा बैग ऊपर रखो जल्दी । ये बर्थ मेरा है । 

ज्यादा बात न बढे इसलिए मैंने हस्तक्षेप किया । दोनों से उनकी टिकट  फिर से देखने का आग्रह किया । चार्ट में मेरा नाम मुरली लिखा हुआ है _ मुरली ने कहा । वह बुजुर्ग व्यक्ति टपक से कहा मेरा नाम मुरली है । मैंने मुरली से उनकी टिकट दिखाने को कहा । किन्तु टिकट उनके पास नहीं था ।टिकट उनके सहायक के पास था । उस व्यक्ति ने अपनी टिकट दिखाई । वह बर्थ उसी का था । अतः मुरली उसके कोप का अधिकारी न बने , मैंने ही उसकी बैग उसके बर्थ पर तुरंत रख दिया । वह व्यक्ति गुस्से में लाल हो गया था । बहुत कुछ कहा जो यहाँ उद्धृत करना जरूरी नहीं समझता । मुरली को अपने गलती का अहसास हो गया था । अब शांत और चुप्पी के सिवाय कोई औचित्य नहीं था । मुरली इस मामले को नजरअंदाज करते हुए चुपके से खिसक गए । सहायक लोको पायलट के आने के बाद पता चला की उनका बर्थ कहीं और था ।


जी हाँ आये दिन हमसे ऐसी गलतिया होती रहती है । पर हम में कितने लोग है जो गंभीरता से सोंचते है ? थोड़ी भी सूझ बुझ से  की गयी कार्य हमारे स्वाभिमान में चार चाँद लगा देते है । मनुष्य मात्र ही एक ऐसा प्राणी है जिसे सूझ बुझ की शक्ति प्राप्त है अन्यथा जानवर और मनुष्य में फर्क कैसे ? स्वच्छ और सशक्त नागरिक देश के उन्नति के नीव है ।

Wednesday, September 24, 2014

कोई शक्ति है ।


कहते है समय बलवान होता है । कब क्या हो जाये किसी को पता नहीं होता । कोई तो है ; जो हमारी सांसो को कंट्रोल करता है । उसके मर्जी के बिना कुछ सम्भव नहीं है । गाड़िया चलती है तभी जब चलाने वाला हो ।
उस दिन ऐसा ही कुछ होने से रह गया । दिनांक 20 जून 2014 को सपरिवार शादी में  शरीक होने जा रहा था । झिम झिम बारिस पड  रही थी । बस स्थानक में खड़े थे । बसे उस स्थानक पर नहीं रुकती है । कुछ समय के बाद एक बस आई और हमने रुकने के लिए हाथो  से इसरा किया ।
बस रुकी और हम जल्दी से उसके अन्दर प्रवेश किये ।बस  चल दी । कुछ दूर बढ़ने के बाद खलासी ने ड्राईवर को रुकने के लिए कहा । ड्राइवर ने बस तुरंत रोक दी ।खलासी बस से उतरा और पीछे की और गया । उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । देखा की -पीछे के चक्के के पुरे नट बाहर निकलने वाले थे ।
फिर क्या था तुरंत अपने औजारों से टाइट किया । बस फिर गंतव्य की ओर रवाना हो गयी । कंडक्टर ने कहा -आज सबकी जान बच गयी अन्यथा एक्सीडेंट होने वाला था ।नटो के बाहर निकलते ही चक्के बाहर आ जाते थे । शुक्र है समय से लिया गया निर्णय सभी को सुरक्षित रखा ।
कहते है -एक छोटा छिद्र नाव को डुबो देता है । कही यह भी सही है की एक धर्मात्मा की वजह से असंख्य की जान बच  जाती है । कोई तो है जो सब कुछ जानता है । कब और क्या करना है ?

Saturday, August 23, 2014

आधुनिक आचरण

" बहुत बेशर्म हो जी |" मुझे गुस्सा आ गया और अनायास ही ये शव्द मेरे मुह से निकल पड़े | बगल में बैठी पत्नी भी घबड़ाते हुए पुछि -"_ क्या हो गया ? मै पत्नी के प्रश्नो का जबाब देता की वह युवा बोल उठा - " किसे बोल रहे है ? " 

उसके ऐसा कहते ही मै और भड़क गया | उसे डाटते हुए बोला - " गलती करते हो और सीना जोरी भी | सॉरी कहने के वजाय मुह लड़ाते हो ? यही शिष्टाचार सीखे हो ? थोड़ा भी संस्कार नहीं है और पूछते हुए शर्म नहीं आती है ? " अभी तक उस युवक को यह समझ नहीं आया की उसकी क्या गलती थी ? वह चुप हो गया | 
युवा का विपरीत वायु होता है | युवाओ को जोश में बुरे या अच्छे का ज्ञान नहीं होता |
मै पत्नी की तरफ देखते हुए बोला - " देखो जी इस भोजन के नजदीक पैर रख दिया | " अब क्या था पत्नी  भी उस युवक को खरी - खोटी सुनाने लगी | वह युवक निःशव्द हो गया | उसे अपने गलती का एहसास हो चुकी थी | उसने कहा - सॉरी अंकल | 

 उस दिन १९ जून २०१४ था और हम पवन एक्सप्रेस के दूसरी दर्जे के वातानुकूलित  कोच में यात्रा कर रहे थे | एक लोअर , एक उप्पर बर्थ हमारा था | बालाजी अलग साईड बर्थ पर थे | उस युवक का बर्थ हमारे विपरीत वाला ऊपर का था | मै दोपहर का भोजन कर रहा था | सभी खाने कि सामग्री लोअर बर्थ पर फैली हुयी थी | वह युवक टॉयलेट से आया और सीढ़ी से ऊपर बर्थ पर न जाकर  दोनों लोअर बर्थ के ऊपर पैर रखते हुए छलांग लगाया और अपने ऊपर के बर्थ पर चढ़ गया | ऐसा करते वक्त उसके एक पैर मेरे खाने के प्लेट से सिर्फ चार अंगुल दूर थे | इस गन्दी  हरक्कत को भला कौन बर्दाश्त कर सकता है ?

प्राचीन काल से इस आधुनिक युग कि तुलना काफी अलग है | शिक्षा के स्वरुप काफी विकसित और अभूतपूर्व है | उसके मुताबिक मनुष्य के रहन - सहन में काफी बदलाव आएं है | किन्तु इन सब के बावजूद  मष्तिष्क निधि के गिराव जोरो पर है | परमार्थ , हितकारी , मददगार , उपयोगी  शिष्टाचार जैसे गुड़ी शव्दो का कोई महत्त्व नहीं रहा | जिसके लिए हमारे पूर्वज जान भी दे देते थे |  

यही शायद असली कलयुग है | उच्च शिक्षा का मतलब यह कतई नहीं कि हम अपने सामाजिक कर्तव्य और शिष्टाचार को भूल जाय | शिष्टाचार का स्वरुप ऐसा हो कि हम जो भी कार्य करें उससे किसी को भलाई के सिवा कुछ न मिले | जो भी हो हमें समाज से सतर्क और समय से जागरूक होनी चाहिए | एक अनुशासित व्यक्ति , परिवार , समाज ,राज्य और देश के  स्वस्थ वातावरण को जीवित रख सकता है | सोंचने वाली बात है - क्या मै अनुशासित और शिष्टाचारी हूँ ? 

हमारे मनीषियों ने काल को कई खंडो में विभाजित किया है । आदि , वर्त्तमान या भविष्य जो भी हो एक विभिन्नता से भरपूर है । 
बलिया में उतरने के पूर्व - चलते - चलते कुछ सुझाव भी दे डाला | दुखी मत होवें हमेशा खुश रहे |  जीवन में कभी कोई गलती हो जाए  , तो मुझे याद कर लेना | हिम्मत और शक्ति मिलेगी |

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Monday, June 23, 2014

चार - चार चौदह

समय स्वतः ही एक  समाचार है । कौन है जो  आज  समाचार से ग्रस्त नहीं  है । हम भी इस  समाचार के एक पहलू है ।  समाचार कई तरह के हो सकते है जैसे - घरेलू , सामाजिक , देशिक,  प्रादेशिक या विश्वस्तरीय  वगैरह -  वगैरह  । रेल गाडी का  चलन भी एक समाचार से कम  नहीं है , तो इसे चलाने वाले चालक इससे परे क्यों रहे । देश में इलेक्शन का दौर शुरू हो गया  है । भारतीय नागरिको को अपने मताधिकार का सदुपयोग अप्रैल - मई २०१४ के महीने में करना है । सोलहवीं लोकसभा और पंद्रहवी प्रधानमंत्री का चुनाव वेहद ही लोकप्रिय बन गया है  , जब की बी जे पि ने अपने अगले प्रधान मंत्री के रूप में श्री नरेंद्र मोदी जी को अपना उम्मीदवार घोषित कर दी है  । सारी राजनीतिक पार्टिया अपने बैचारिक भिन्नता को भुला , एक जुट हो - शाम ,  दाम -  भेद से बशीभूत हो , अपनी पूरी शक्ति श्री नरेंद्र मोदी को रोकने में लगा दी है । फिर भी अगर श्री नरेंद्र मोदी की जीत होती है , तो ये अपने - आप में व्यक्तिक जीत ही होगी । देखना है होता है क्या ?

चार -चार - चौदह । यानी चौथा अप्रैल २०१४ का दिन । कुछ अजीब सा रहा ।

घर में  टी. वीं पर नजर गयी । किसी स्टिंग का प्रसारण चल रहा था । सभी चैनल इसके प्रसारण में व्यस्त । इसके दिखाने का मकसद सिर्फ यही था कि बाबरी मस्जिद के विधवंश के पीछे बी जे पी के शीर्ष नेताओ के हाथ होने को पब्लिक के समक्ष प्रस्तुत कर बीजेपी को नुकशान पहुँचाया जाय  । साथ ही यह स्टिंग मतदान पर भी असर डाल सकती है । चौदह वर्ष पहले की स्टिंग और आज प्रसारण का मकसद क्या हो सकता है ? राजनीतिक लाभ / ब्लैकमेल /आर्थिक लाभ या और कुछ ? समय के साथ समाचार का काला युग ? मेरे विचार से ऐसे स्टिंगर और प्रसारण करने वालो को तुरंत गिरफ्तार कर लेना चाहिए क्योकि उस स्टिंग का इस समय कोई औचित्य नहीं था । अगर यह सही था तो मिडिया ने इसे चौदह वर्ष क्यों दबा कर रखा ? समयाभाव की वजह से पूरा प्रसारण  नहीं देख  पाया । राजकोट एक्सप्रेस को लेकर वाड़ी जाना था ।  डेढ़ बजने वाले थे । कड़ाके की धुप में घर से  निकल पड़ा ।समय पालन अतिआवश्यक जो है ।

गाड़ी आने की इंतजार में लॉबी के लॉन्ग में बैठा हुआ था । सहसा एक लोको पायलट मेरे तरफ मुड़े और अभिवादन करते हुए बोले - सर - आज  कल दिखाई नहीं दे रहे है ? उनके मुह से शव्दो के साथ थूक के छींटे मेरे हाथो पर गिर पड़े । वे बहुत ही क्लोज लोको पायलट है । इसका मुझे ख्याल ही न रहा और झिड़की देते हुए उनपर बरस पड़ा , बोला - " आप शव्दो के साथ थूक न फेंके जी । हाथ गन्दा हो गया । " उन्हें  मेरी भावनाओ की   कठोरता  महसूस नहीं  हुआ  । वे तुरंत मेरे हाथो को रुमाल से पोंछने लगे औरनम्रता से  बोलें - सॉरी सर । मेरे चेहरे  पर क्षमा सी मुस्कान खिल उठीं  । इसे कहते है पॉजिटिव ईमेज / एप्रोच  ।

 राजकोट गाड़ी आ चुकी थी । लॉबी से  निकलने का दिल नहीं कर  रहा था । ऐ.सी. की भीनी - भीनी ठंढक दिल को मोह रही थी । वध्यता थी निकलना ही पड़ा । गाड़ी दस मिनट लेट गुंतकल से रवाना हुई । गाड़ी नँचरला रेलवे स्टेशन को लूप लाइन से पास कर रही थी क्योकि  मेन लाइन में  इंजीनियरिंग काम चल रहा था गाड़ी की गति सिर्फ ३० किलोमीटर / घंटा थी । इंजीनियरिंग स्टाफ वालो ने वॉकी -टॉकी पर हमें अनुरोध के साथ सूचना दी कि लोको पायलट साहब कृपया गाड़ी को  धीमी गति से चलाते  हुए आगे बढे , कुछ हमारे इंजीनियरिंग स्टाफ दोपहर के खाने के पैकेट के साथ उतरना चाह रहे है । हम लोगो ने अभी तक भोजन नहीं किया है । स्वाभाविक है , अपने रेल  कर्मी थे और इस चिलचिलाती धुप में कठिन कर्मरत । मैंने गाड़ी की गति काफी  कम कर दी । सभी भोजन सामग्री के साथ उत्तर गए । उन्होंने वॉकी -टॉकी पर धन्यवाद कहा ।

सामने मलोगावलि स्टेशन  आने वाला था । गाड़ी १०० किलोमीटर / घंटे  गति से दौड़ रही थी । अचानक दो गायों की  झुण्ड  लाइन पर आ गई । जब तक गाड़ी की ब्रेक लगाते , दुरी कम और दोनों के चिथड़े उड़ गए । गाड़ी के दो कोचों के बीच ब्रेक पाईप अलग हो गए । गाड़ी रुक गई । कैसा संयोग था ? कैसी विडम्बना थी -मौत / यमराज की गति नँचरला में धीमी हुई और दोनों गायों की मौत मलोगावलि  में । हर जीव की मौत सुनिश्चित है । उनके  मालिको के प्रति दिल में दर्द उठा । अफसोस हजारो की नुकशान हो चुकी थी । काश अपने पशुओ की संरक्षा और सुरक्षा की ध्यान रखते ?

राजकोट एक्सप्रेस के कोच में पानी मंत्रालयम स्टेशन में  भरा जाता है । नदी सुख गयी है अतः पानी कृष्णा स्टेशन  में भरा जायेगा | इसीलिए  मंत्रालयम स्टेशन में गाड़ी नहीं रुकी ।  कृष्णा रेलवे स्टेशन पर कोचों में पानी भरा जा रहा था | मै लोको में बैठा सिग्नल का इंतजार कर रहा था | तभी एक यात्री लोको के पास आया और लोको के नंबर प्लेट ( १६६७२ ) की तरफ इंगित करते हुए पूछा - " साहब क्या इस गाडी का नंबर यही है ? मैंने कहा - नहीं , ये मेरे लोको का नंबर है | वह कुछ देर तक शांत रहा | इधर - उधर देखा | फिर पूछ बैठा -तब इस गाडी का नंबर क्या है ? मैंने कहा -१६६१४ और उसे देखता रहा | उसके मुखमंडल पर रेखाएं दौड़ती नजर आयीं असंतोष के भाव  , शायद उसके मन में कोई उत्सुकता जगी जैसे और कुछ जानकारी  चाहता हो | मुझे देखते हुए फिर बोला - " सर रिज़र्वेशन किस नंबर का करेंगे ? मै थोड़े समय के लिए अवाक् रह   गया , कैसा अजनवी है जिसे रिजर्वेशन कैसे करते है , का भी ज्ञान नहीं है  |  इस आधुनिक युग के दौर में ऐसे लोग भी है ?

 इस व्यक्ति को इसकी  भाषा में समझाना जरूरी था | अतः मैंने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की और कहा - " ये नंबर मेरे लोको का है यहाँ मै बैठता हूँ | आप कोच में बैठते है और उस गाडी का नंबर १६६१४ है , अतः आप को उसी नंबर का रिज़र्वेशन करना चाहिए , जहाँ आप बैठते है | मैंने अनुभव किया - अब वह समझ गया था | गाड़ी का सिगनल हो चूका था | सहायक ने सिटी बजायी | सभी लोग दौड़ - भाग कर कोच में चढ़ गए थे | गाड़ी आगे चल दी ।

आज जीवन के विचित्र अनुभव मिले थे | शायद जाने - अनजाने सभी के साथ ऐसा कुछ होता ही होगा ? बिरले ही हम सीरियसली लेते होंगे | दर्द को गहराई से सोंचने पर दर्द की विशालतम रूप दिखाई देती है अन्यथा हास्य | हम रहें या न रहें - गाड़ी की सिटी बजती ही रहेगी ? जो संभल गया वही मुकद्दर का सिकंदर अन्यथा मौत । 







Friday, May 23, 2014

कुशल प्रशासक

मनुष्य किसके अधीन है किस्मत या कर्म , यह कह पाना बड़ा ही कठिन है ।मनुष्य सामाजिक प्राणी है । इसे घर के अंदर परिवार से तो बाहर समाज से सामना करना पड़ता है । हर व्यक्ति के स्वाभाव में हमेशा ही अंतर दिखती है। सभी के कार्य कलाप और व्यवहारिक दिशा भिन्न - भिन्न तरह  की  होती है । कुछ में बदलाव के कारण पारिवारिक  अनुवांशिकता , तो कुछ में स्वतः जन्मी असंख्य सामयिक और बौद्धिक गुण होते  है । यही कारण है कि सभी व्यक्ति अपने - अपने क्षेत्र में विभिन्नता से परिपूर्ण  होते है ।

चोर चोरी के तजुर्बे खोजने में माहिर तो पुलिस चोर को पकड़ने के तिकड़म में सदैव लिप्त रहते है । वैज्ञानिक विज्ञानं कि तो व्यापारी व्यापर लाभ की  । सभी कि मंशा के पीछे स्वयं का हित ही छुपा होता  है । जो इस क्षेत्र के बाहर निकलते है , वही महात्मा कि श्रेणी में गिने जाते है या महात्मा हो जाते है क्योकि उनके अंदर परोपकार कि भावना ज्यादा भरी होती है । पेड़ पौधे अपने फल और  मिठास को दान कर , सबका प्रिय हो जाते है ।

आज - कल सरकारी दफ्तरों को सामाजिक कार्यो से कोई सरोकार नहीं है । दूसरे की भलाई से कुछ लेना - देना नहीं है । जो शासन के पराजय और भ्रष्टाचार का एक विराट रूप ही है ।  इसका मुख्य कारण दिनोदिन हो रहे नैतिक पतन ही तो है । भ्रष्टाचार ही है । अनुशासन हीनता है । एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ है । इस कुबेर की भाग दौड़ में सिर्फ साधारण जनता ही पिसती है । इस प्रथा के शिकार साधारण जन ही होते है । कोई नहीं चाहता कि उसे किसी कार्य हेतु कुछ देने पड़े । एक कार्य के लिए दस बार दौड़ने के बाद स्वतः मनुष्य  टूट जाता है और इस नासूर से छुटकारा पाने के लिए मजबूरन असामान्य पथ  को अखतियार कर लेता   है ।लिपिको के पास कमाई से ज्यादा धन कहाँ से आ जाते  है ? ऑफिसरो के पास अनगिनत सम्पति के सोर्स कौन से है ? घरेलू पत्नी करोडो की मालकिन कैसे हो जाती है ।स्कूल में पढने वाले बच्चे के अकाउंट में लाखो कैसे ?

ऐसे ही परिस्थितियों के शिकार यि. सि. यस राव ( लोको पायलट ) थे । जिनका मन पत्नी के देहांत के बाद अशांत रहने लगा था । कार्य से अरूचि होने लगी थी । इस अशांत मन से ग्रसित हो  गाडी चलाना सुरक्षा की दृष्टि से एक गुनाह से कम नहीं था  । उनका मन नहीं लग रहा था  । अतः उन्होंने यह निर्णय लिया  कीअब  स्वैक्षिक अवकाश ले लेना चाहिए । कई राय सुमारी के बाद दरख्वास्त लगा दिए । इस अवकाश के लिए अधिक से अधिक तीन महीने ही लगते है । तीन महीने भी गुजर गए , पर अवकाश की स्वीकृति का पत्र नहीं आया । एक लिपिक से दूसरे लिपिक , एक चैंबर से कई चैंबर काट चुके । बात  बनती नजर नहीं आई । दोस्तों से आप बीती सुनाते  रहे । सुझाव मिली , कुछ दे लेकर बात सलटा लीजिये । किन्तु सदैव अनुशासन की पावंद रहने वाला व्यक्तित्व भला ये कैसे कर सकता था । उन्होंने और अन्य साथियो ने मुझसे इस केश को देखने का आग्रह किये ।

यह शिकायत हमारे समक्ष आते ही लोको रनिंग स्टाफ  का मंडल सचिव होने के नाते मेरी और संगठन की  जिम्मेदारी बढ़ गयी । अपने अध्यक्ष के साथ  मै इस केश में जुट गया । लिपिक और कुछ कनिष्ट ऑफिसरों से मिलने के बाद पता चला की यि. सि. यस राव के सर्विस रिकार्ड्स के कुछ डाक्यूमेंट्स गायब थे । इसी की वजह से केश पेंडिंग था । हम कनिष्ट पर्सनल अफसर से जाकर मिले । उसने वही बात दुहरायी । हमने कहाकि डॉक्यूमेंट आप के कस्टडी में था , फिर पेपर गायब कैसे हुए ? जैसे भी हो इस महीने में अवकाश पत्र मिल जाने चाहिए , अन्यथा वरिष्ठ ऑफिसरों से शिकायत करेंगे । उस अफसर के कान पर जू तक न रेंगा । महीने का आखिरी दिन भी चला गया ।

हमने एडिशनल मंडल रेल प्रबंधक श्री राजीव चतुर्वेदी जी से शिकायत की । राजीव जी बहुत ही नम्र किन्तु अनुशासन प्रिय अफसर थे । हमने सोंचा  की ये भी दूसरे अन्य  ऑफिसरों  की तरह कहेंगे - ठीक है केश देखूंगा और केश जस का तस डस्ट बिन में पड़ा रहेगा । पर यह धारणा  बिलकुल गलत साबित हुई  । उन्होंने तुरंत उस कनिष्ट पर्सनल अफसर को हमारे सामने ही तलब  किया । वह अफसर आया और हमें  यहाँ देख , उसे मामले की गंभीरता  समझते देर न लगी । ADRM  साहब ने उनसे पूछा -यि. सि. यस राव का केश क्यों पेंडिंग है । वह अफसर शकपकाया और कहा - सर एक हफ्ते में पूरा हो जायेगा । तब श्री राजीव चतुर्वेदी जी ने उन्हें हिदायत दी -  " लोको पायलट बहुत ही परिश्रमी कर्मचारी हैं । उन्हें हेड क्वार्टर में आराम की जरूरत होती है । मै नहीं चाहता कि कोई भी लोको पायलट अपने ग्रीवेंस के लिए आराम के समय ऑफिस का चक्कर काटें ।  आप खुद लोको पायलट होते , तो किस चीज की आकांक्षी होते  ? "

न्याय के इस विचित्र पहलू से हमें भी हैरानी हुयी , क्योकि इस तरह के अफसर बहुत काम ही मिलते है । हमने ADRM  साहब  धन्यवाद दी । कुछ ही दिनों में सफलता मिली और यि. सी यस राव का स्वैक्षिक अवकाश का पत्र समयानुकूल आ गया । यह एक कुशल प्रशासक के नेतृत्व का कमाल था । चतुर्वेदी जी के स्वर हमेशा गूजँते रहे । हमने ग्रीवेंस रजिस्टर की माँग तेज की , जो प्रत्येक लॉबी में होनी चाहिए ।  आज सभी लॉबी में ग्रीवेंस रजिस्टर उपलब्ध है । ऐसे सच्चे ईमानदार प्रशासको को नमन । 

Sunday, March 23, 2014

आरक्षण

सत्ताईसवीं फरवरी २०१४ को शिवरात्रि का दिन  था । उस दिन ट्रेन में आरक्षण हेतु सिकंदराबाद स्टेशन के आरक्षण खिड़की पर गया था । " क्या आप ही सबसे पीछे है ? " मैंने सामने कतार में खड़े व्यक्ति से पूछा ।उसने हाँ में सिर  हिला दी । मै उसके पीछे खड़ा हो गया । मेरे सामने पुरे दस व्यक्ति खड़े थे । आध घंटे से कम नहीं लगेगा ? सोंचते हुए अनमयस्क सा लाईन में खड़ा रहा । सामने वाला बार -बार मुझे पलट कर देख रहा था । शायद कुछ पूछना चाह रहा हो । मैंने उसके तरफ ज्यादा ध्यान देना उचित नहीं समझा । 

आखिर वह पीछे पलटा और अपने टिकट को मुझे दिखाते हुए पूछा  - क्या टिकट का रद्दीकरण 
इसी खिड़की पर होगा ? मैंने हाँ में सिर हिला दी । पर मेरा मन माना नहीं । उसके हाथो कि 
ओर फिर देखा । उसके हाथो में केवल टिकट था । मैंने उससे कहा - " रद्दीकरण के लिए फॉर्म 
भरना पड़ेगा , वह कहाँ है ?" उसने सच्चाई भाप ली । उसने फॉर्म नहीं भरी थी । पूछा - " फॉर्म 
कहाँ  मिलेगा ?" मैंने उसे दूसरी खिड़की कि ओर इशारा कर दी । वह लाईन से बाहर चला गया । 

दिल में तशल्ली हुई ,कम से कम एक व्यक्ति सामने से कम हुआ । सामने से लाईन कम होने कि 
नाम नहीं ले रही थी । सामने ग्रीष्म कालीन  टूर हेतु  आरक्षण वाले ज्यादा थे । मैंने देखा कि फिर वह व्यक्ति हमारे आस -पास टहलने लगा । उसके हाथो में रद्दीकरण का एक फॉर्म था । कभी मेरे तरफ तो कभी आगे वाले व्यक्ति को देख रहा था । शायद कलम कि जरूरत हो  । उसके पास कलम नहीं थे । मेरे मन में भूचाल आया । मै उसे कलम नहीं देने वाला क्योकि आरक्षण कि खिड़की के 
पास मेरे कई कलम गुम हो चुके है । जिन्होंने फॉर्म भरने के लिए लिए , बिन वापस किये चले गएँ । 

यह कैसी विडम्बना है कि आज - कल के ज्यादातर व्यक्तियो के पास मोबाइल / स्मार्टफोन मिल जायेंगे , पर कलम नहीं । 

तब तक लाईन में खड़े सामने वाले व्यक्ति ने उसकी मंसा को भांप लिया  और अपनी जेब कि कलम उसके तरफ बढ़ा दी  । वह व्यक्ति भी सहर्ष स्वीकार कर लिया । किन्तु फॉर्म भरने कि वजाय वह  इधर - उधर देखते रहा । आखिर कार कलम देनेवाले ने कहा - " फॉर्म भर डालो भाई , आपकी बारी आने वाला है । "

ओह उसके मुख से आश्चर्य जनक शव्द  निकले - " सर लिखने नहीं आता । " मेरा मन उसके प्रति सहानुभूति से भर गया । क्या यही है शिक्षा का अधिकार ? क्या यही है आजादी के पैंसठ वर्षो से अधिक  की उन्नति ? आज भी देश के कोने - कोने में हजारो ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे , जो पढ़ाई से ज्यादा जीविका पर ज्यादा ध्यान  देते है । अगर ऐसा ही रहा तो आधुनिक भारत की  कल्पना बेकार है । 

Sunday, February 23, 2014

कहानी - दो पैर

मै अपने किसी कार्य हेतु तिरुपति जा रहा था । प्लेटफॉर्म के एक सीट पर बैठा  ट्रैन के आने का इंतज़ार कर रहा था । चारो तरफ गहमा - गहमी थी । सभी को सिर्फ  ट्रेन की  इंतजार थी । चारो तरफ  नजर  दौड़ाई  । शायद कोइ जानकार  
 साथी मिल जाए ? दूर भीड़ के एक कोने में एक व्यक्ति के ऊपर नजर पड़ी  । वह अपने बैशाखी के सहारे खड़ा था । अनायास उसकी नजर मेरे ऊपर पड़ी ।वह मुझे  बार - बार देख रहा था । मुझे भी वह कुछ परिचित सा लगा । शायद कहीं देखा हो  । बार -बार माथे पर बल दिया किन्तु सफलता नहीं मिली क्यूंकि अपाहिज से कभी कोई ताल्लुक नहीं रहा । ट्रेन आ चुकी थी । सभी जगह पाने कि होड़ में दौड़े । ट्रेन समय से पहले आई  थी । अतः यह तो निश्चित था कि पहले नहीं छूटेगी । 

मै एक कम्पार्टमेंट के अंदर जगह पा लीथी  । अनायास वह बैशाखी वाला व्यक्ति भी मेरे सामने वाली सीट पर आ बैठा । मेरे मुंह खुले रह गए । यह तो वही नायडू था  ,जिसे दो वर्ष पहले एक ट्रेन एक्सीडेंट ने अपाहिज बना दिया था । " नमस्ते नायडू " - नायडू से उम्र में बड़े  होने के  वावजूद भी मेरे मुख से आत्मीय स्वर निकल पड़े । नायडू ने भी स्वीकृति में - मेरी तरफ देखा और प्रशंशनीय मुद्रा में कहा - " शेखर सर  नमस्ते । कैसे है सर जी  ? बहुत दिनों के बाद मिले है ?"  उसके चेहरे 
पर एक अजीब सी ख़ुशी कि रेखाए नांच गयी ।मुझे यह जानकर ख़ुशी हुई कि वह मुझे अभी भी  
पहचान लिया था । वैसे तो उस ट्रेन एक्सीडेंट के बारे में मुझे सूचना थी ,पर नायडू ने दोनों  पैर  
गवा दिए थे , इसकी जानकारी  नहीं थी । 

" ये कैसे हुआ नायडू ?" - मैने विस्तृत जानकारी हासिल करने कि कोशिश की । उसने अगल - बगल देखें और एक लम्बी साँस लेते  हुए कहा । " सर आप को उस दुर्घटना कि जानकारी तो है ही , पर प्रशासन कि लापरवाही की  वजह से मुझे ये पैर गवाने पड़े ।रिलीफ वैन देर से आई थी  " इतना कहते  ही उसके आँखों में पानी भर आया  । " मै दो घंटे तक लोको में फँसा रहा । सभी समझ रहे थे कि मै मर गया हूँ ।अस्पताल पहुँचने के पहले ही मेरे दोनों पैर अधिक रक्तस्राव की  वजह से ढीले पड़ गए थे ।मै  उन लोको पायलटो का शुक्र गुजार हूँ जिन्होंने अपने खून दानकर मेरी जान बचाई । अन्यथा। .... । " नायडू ने अपनी आँखे पोछी और अपने हाथ कि अंगुलियो को मरोड़ने लगा । 

मैंने कहा -" ईश्वर को शायद यही मंजूर था नायडू । ईश्वर ही सबका रखवाला है । " मुझे पता था लोको पायलटो के परिवार वाले कैसे- कैसे  दर्द और अलगाव बर्दाश्त  करते है ।कुछ पूछूं ? इसके पहले ही नायडू ने कहा -"सर आज मेरी पत्नी ही मेरी दो पैर है ,इसके वजह से जिन्दा हूँ । " इतना कह नायडू ने बगल में बैठी अपनी पत्नी से परिचय करवाया । इस महान महिला के प्रति आदर स्वरूप मेरे दोनों हाथ नमस्कार हेतु  जुड़ गए ।उस साध्वी ने भी एक हल्की ख़ुशी के साथ अपने हाथ जोड़ दिए ।बिलकुल यह सच है कि लोको पायलटो को कोई सम्बल देता है तो वह है उनका परिवार ।तब - तक तिरुपति आ चूका था । हम सभी काम्पार्टमेंट से बाहर आ गए थे । नायडू ने मुझसे मिलने कि ख़ुशी जाहिर की  और सपरिवार आगे बढ़ गया ।

 मै एक टक लगाये सोंचता  रहा -यह कैसी विडम्बना है , दुनिया के मुसाफिरो को मंजिल तक ले जाने वाला , बैशाखियों के सहारे अपनी मंजिल तय कर  रहा है । क्या यह सच है  प्रशासन  इन्हे कोल्हू के बैल से ज्यादा महत्त्व नहीं देता ? जागो लोको पायलटो .... नयी सूरज की  नयी किरण अभी बाकी है । 

Wednesday, January 22, 2014

आधा घंटा पहले का निर्णय

मै अपने पाठको के समक्ष हमेश ही सत्य और प्रमाणिकता से जुड़े विषयों को प्रस्तुत करते रहा हूँ , चाहे कहानी हो या अनुभव । कभी -कभी अति आश्चर्य होता है , जब सत्य सामने खड़ा हो  और हम उसे समझ पाने या अनुभव कर सकने में अक्षम हो जाते है । कही ऐसा तो नहीं कि होनी को कोई टाल नहीं सकता ? जो भी हो , हवा की रूख भापने वाले संभल जाते है । हमारे शरीर  का निर्माण पाँच तत्वो  से हुआ  है । अतः यह स्वाभाविक है कि इनमे से किसी के अपनत्व  का संपर्क एक अजीब सा अनुभव ही देगा । 

हम लोको चालको का कार्य स्थान्तरित होते रहता है । कभी इस शहर में तो कभी उधर । यात्री गाड़ी हो तो अनुभव के अवसर बहुत मिलते  है । तरह - तरह के यात्रियो से संपर्क बनते है । हर किस्म के लोग संपर्क में आते है । इस अनुभव और प्रश्नो कि लड़ी उस समय और बढ़ जाती है ,जब किसी बाधाबश गाड़ी देर तक रूक गई हो । यात्री  झुण्ड के झुण्ड लोको के पास आ खड़े होते है । प्रश्न वाचक चेहरे , प्रश्न वाचक शव्द -हमे संयम कि पटरी पर ला घसीटते है । 

लाख करें चतुराई पर विधि कि लिखन्ती को कोई टाल नहीं सका है । अगर ईश्वर है , तो कालनिर्णय का चांस सभी को देते है । कोई जरूरी नहीं कि आप भी इस मत से सहमत हों । उस दिन ऐसा ही कुछ हुआ था । मै अपने को -लोको चालक के साथ सिकंदराबाद आरामगृह में कॉफी कि चुस्की ले रहा था । ठंढ लग रही थी । सबेरे का वक्त था । अभी - अभी बंगलूरू - हजरतनिजमुद्दीन राजधानी एक्सप्रेस को काम करके आयें थे । वि. आर. के. राव ने कहा -मै अपोलो अस्पताल जाकर आता हूँ । आप नास्ता कर लेना । मैंने पूछा - ऐसी क्या बात है ? 

उन्होंने जो बताएं वह इस प्रकार है --
" मेरे सम्बन्धी एक अपार्टमेंट हैदराबाद में ख़रीदे है । उन्होंने  शिफ्ट करने के पहले दूध गर्म और गृहप्रवेश कि पूजा हेतु , गुंतकल से  सपरिवार अपने कार से हैदराबाद आ रहे थे । वे लोग रात को ग्यारह बजे यात्रा शुरू किये । रास्ते में एक बजे कार चालक ने कहा -मुझे नींद आ रही है । एक घंटा सोना  चाहता हूँ । चालक को अनुमति मिल गयी । कार को सड़क के एक किनारें पार्किंग कर सो गया । कुछ आधे घंटे ही हुए होंगे , मेरे रिस्तेदार ने उस चालक को आगे चलने को कहा , क्यूंकि सुबह का मुहूर्त छूट सकता था । 

अल साये हुए चालक और कार चल दी । यात्रा के दौरान कुछ दूर जाने के बाद चालक ने कंट्रोल खो दी और कार ने पलटी मारी । सभी रात  भर घायल अवस्था में कार में पड़े रहे । किसी वाहन चालक या पथिक  ने उनकी सुध नहीं ली । सुबह आस - पास के गाव वालो की नजर पड़ी और उनके मदद से मेरे रिस्तेदार अपोलो में भर्ती है । सभी को गम्भीर चोट पहुंची है । "

जी हाँ । यह घटना पिछले माह कि है । अब वे लोग अस्पताल से डिस्चार्ज हो चुके है । आधा घंटा पहले का निर्णय महंगा पड़ा ? या नियति में यही लिखा था ? या कर्म के परिणाम थे ?या अपार्टमेंट अशुभ था ? जो भी हो हवा और अग्नि में जरूर फर्क होता है । 

Friday, November 22, 2013

राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी ।

कभी - कभी जीवन में ऐसा लगता है कि हर चीज और अनुभव सबके बस की नहीं  होती । बहुत सी ऐसी चीजे है , जिन्हे धनवान  नहीं समझ सकते । ठीक वैसे ही धनवानो  की कुछ अनुभव  कमजोर  के पहुँच से बाहर होती है । कुछ समाज या व्यक्ति विशेष असाधारण प्रतिभावान  होते है , पर असुविधा कि वजह से अपनी प्रतिभा को विखेर नहीं पाते । शायद इसी लिए पांचो अंगुलिया बराबर नहीं है और  इसी भिन्नता कि वजह से समाज में संतुलन बना रहता है ?

 लोको पायलटो की जिंदगी भी अजीब सी  होती है । दिन में सोना , रात्रि पहर  जागते हुए कार्य को पूर्ण रूप देना ,दिनचर्या सी बन गयी है । हजारो सिगनलों , सैकड़ो मानव रहित / मानव विहीन समपार फाटको , सर्दी या गर्मी , वरसात या सुखा  , विभिन्न प्रकार के गाड़ियों / इंजनो , रुकन या प्रस्थान वगैरह - वगैरह को अनुशासन  के भीतर रहते हुए पूर्णरूप देना ही तो है लोको पायलट । समाज से दूर , परिवार से दूर बस गाड़ी के यात्रियों को ही परिवार मानकर सतत आगे बढ़ते रहते है । लोको पायलटो का   मुख्य ध्येय  -  अनुशासन में रहते हुए जान - माल की  रक्षा ,  रेलवे और देश की प्रगति में चार चाँद लगाना ही तो है । आप एक क्षण के लिए लोको पायलट बन , इनके जीवन की अनुभूतियों को महसूस कर सकते है । 

लोको पायलटो को  कार्य के समय कई छोटे या बड़े मुश्किलो का सामना करना पड़ता  है । सफलता पूर्वक त्रुटियों को झेल जाना भी एक बड़ी अनुभव होती है । हमने सिनेमा घरो में कई बार देखा होगा कि नायक /नायिका  रेलगाड़ी  में सफ़र कर रहे होते है । कोई छोटी वस्तु / घी के डब्बे / टिफिन बॉक्स को खतरे की जंजीर  से बांध देते है । तदुपरांत रेलगाड़ी  रूक जाती है । रेलगाड़ी के  कर्मचारी अपने निरिक्षण के दौरान इस गलती को देख लेते है और नायक / नायिका को खरी खोटी सुनाते  है । थोड़े समय के लिए  दर्शक हँसे बिना नहीं रह पाते और कुछ ताली तक बजा देते है । जी हाँ यह छवि गृह / सिनमोघरो  के छवि/ चलचित्र  में निर्देशक द्वारा प्रेषित , दर्शको के लिए मनोरंजन के एक मसाले के साधन मात्र होते है । ऐसी घटना वास्तविकता से परे समझी जाती है । लेकिन  -

सभ्य और शिक्षित समाज इस कार्य को कार्यान्वित कर दें , तो आप क्या कहेंगे ? क्या आपने कभी  ऐसी कल्पना कि है ? जी शायद आप को पता नहीं , यह वास्तविक जीवन में भी सम्भव हो  सकता है , जब राजधानी एक्सप्रेस ठहर गयी । कल यानि २१ नवम्बर २०१३ कि घटना प्रस्तुत है । कल मै राजधानी एक्सप्रेस को लेकर सिकंदराबाद जा रहा था । राजधानी एक्सप्रेस सेडम स्टेशन पर रुकी । इसके फर्स्ट क्लास के डिब्बे से एक यात्री उतर गया , जो लोअर बर्थ का यात्री था । राजधानी फिर रवाना हो गयी । कुछ चार / पञ्च किलोमीटर कि यात्रा के बाद किसी ने खतरे कि जंजीर खिंच दी । फिर क्या था राजधानी एक्सप्रेस तुरंत रुक गयी । जाँच के दौरान  पता चला कि फर्स्ट क्लास के कोच में उप्पर बर्थ का यात्री लोअर बर्थ में सोने के लिए निचे उतरने के लिए इस जंजीर का सहारा लिया था । शायद वह यह नहीं समझ पाया कि यह कोई साधारण जंजीर नहीं है  बल्कि खतरे की जंजीर है । अनपढ़ की गलती क्षम्य है पर सभ्य और पढ़े - लिखे कि ? जब उसकी गलती से राजधानी एक्सप्रेस रुक गयी । 

Wednesday, October 23, 2013

ऐसा होता है अनुशासन

अनुशासन की बात आते ही शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है । मुख्यतः  जो इसके आदी नहीं है । पर अपने आप में अनुशासन बहुत ही लाजबाब चीज है ।जिन्हें यह प्रिय है , उनके लिए देव तुल्य  । इसके परिणाम उस समय आश्चर्य की सीमा को छू लेती  है , जब दोनों ही इसके प्यारे/ अवलंबी हो । इसके परिणाम इसके सकारात्मक / नकारात्मक इस्तेमाल पर निर्भर करते है ।

 हां यह जरूर पथ में कांटे / दुश्मनों की संख्या बढ़ा देती है , परन्तु  धैर्यवान उच्चाई को छु लेते है और कायर परिणाम की गिनती करते हुए हथियार डाल देते है । कभी ऐसा भी होता होगा जब  अनुशासित व्यक्ति अपने आप को भी थोड़े समय के लिए सोंचने के लिए बाध्य हो जाए ।वास्तव में ऐसा  होता भी है । किन्तु यह सत्य है कि अनुशासन स्वयं को फायदा और इसका दुरुपयोग दुसरे को फायदा पहुंचता है । 

हम रेलवे के लोको पायलटो की कहानी बहुत करीब से  इससे  जुडी हुई  है । इस अनुशासन के सहारे गाड़िया अपने मंजिल तक सुरक्षित पहुंचती है । इसी लिए कहते है - अनुशासन हटी , दुर्घटना घटी । मेरा निजी अनुभव  है कि अनुशासन प्रिय लोग दिल और दिमाग से कठोर होते है । कभी - कभी ऐसे कदम उठाने पड़ते है , जिसे याद करके अकेले में आंसू निकल आते है । 

एक वाकया प्रस्तुत है । घटना उस समय की है जब मेरी पोस्टिंग यात्री लोको चालक के रूप में पकाला में हुई  थी । सांय काल का समय । katapadi  से तिरुपति पैसेंजर ट्रेन लेकर जाना था । ड्यूटी में आ गया था । katapadi का अगला स्टेशन रामापुरम  है । जो करीब १५ किलोमीटर दूर है । मुझे ट्रेन प्रस्थान की आथारिटी दी गयी । अथारिटी एब्नार्मल थी यानी पेपर लाइन क्लियर और सतर्कता आदेश के साथ , क्युकी katapadi स्टेशन मास्टर का संपर्क रामापुरम  मास्टर से नहीं हो पा रही  थी  । सतर्कता आदेश को पढ़ा , जो मुझे १५ किलोमीटर की गति से katapadi से रामापुरम जाने की अनुमति दे रहा था । कुछ समय के लिए अवाक् हो गया । 

katapadi दक्षिण और दक्षिण मध्य रेलवे की सीमा है । katapadi दक्षिण रेलवे के अंतर्गत पड़ता है । सीएमसी /वेल्लोर जाने के लिए यही उतरना पड़ता है ।मै सतर्कता आदेश के साथ स्टेशन मास्टर के ऑफिस  में गया और कहाकि - हमारे रेलवे में एब्नार्मल परिस्थिति में १५ किलोमीटर की सतर्कता आदेश नहीं दी जाती है । रामापुरम की दुरी १५ किलोमीटर से ज्यादा है । १५किलोमीटर की गति से रामापुरम पहुँचाने में बहुत समय लगेगा । मास्टर ने जबाब में कहा - मै कुछ नहीं कर सकता । हमारे यहाँ जो नियम है , उसी के मुताबिक सतर्कता आदेश दिया हूँ । अब मै निरुत्तर हो गया ।

 मै भी दृढ अनुशासन प्रिय । मैंने दृढ निश्चय कर ट्रेन को अनुशासित रूप से चालू कर दिया । रामापुरम तक १५ किलोमीटर की  गति से चल कर१५ मिनट के रास्ते को  ७५ मिनट में पूरा करते हुए पहुंचा । इधर हमारे मंडल में खतरे की घंटी बजने लगी । आखिर ट्रेन किधर है ? रामापुरम में मदुरै एक्सप्रेस एक घंटे से लाइन क्लियर के इन्तेजार में खड़ी थी । रामापुरम पहुंचते ही मास्टर ने लेट आने की जानकारी मांगी । मैंने पूरी कहानी कह दी । सभी आश्चर्य चकित रह गए । सभी ने मानी - ऐसा होता है अनुशासन । 

Saturday, August 24, 2013

एक लघु कथा - पिघलती ममता

मुंशी प्रेमचंद पुस्तकालय -अपने  आप में एक अलग ही महत्त्व रखता है । इस पुस्तकालय में  एक साथ  पचासों लोग  बैठ सकते है । शिप्रा एक विदुषी महिला  थी । सामाजिक , राजनितिक , आर्थिक और देश -विदेश की समस्याओ में विशेष रूचि । इस पुस्तकालय के  सभी पाठको में बहुत लोकप्रिय । वह अपने एकलौते पांच वर्षीय पुत्र के  साथ नियमित पुस्तकालय में शरीक होती थी । बहुत ही मृदुल भाषी , शांत स्वाभाव वाली ।  उसका पुत्र भी सभी का प्यारा था । 

एक दिन हरीश ने उनके   पुत्र के सिर पर टोपी  रखते हुए -" टोपी " कह  दिया । शिप्रा के मुख की रेखाए तन गयी । माँ का कोमल दिल , पुत्र के प्रति इस्तेमाल  विशेषण के शव्द से आहत हो गया ।  मर्माहत सा टोपी को दूर फेंकते हुए ,पुस्तकालय से बाहर निकल  गयी । हरीश समझ न सका ? सन्न रह गया । समझ नहीं पाया कि उससे कौन सी गलती हो गयी   है । वैसे टोपी सिर की शोभा और  इज्जत बढाने वाली वस्तु  है । पैर पर थोड़े ही रखी जाती है ? एक माँ की ममता को ठेस पहुंचे , ऐसी  हरीश की इच्छा नहीं थी , महज प्यार से कह दिया था । एक इत्तेफाक था । 

पुस्तकालय में शिप्रा की उपस्थिति दिन प्रतिदिन कम होने लगी । सभी को उसकी कमी खलने लगी थी  । हरीश ने तय किया कि अवसर मिलने पर शिप्रा से गलती के लिए खेद प्रकट करेगा । वह अवसर की  ताक में था । आज पुस्तकालय के सभागार में एक समारोह का आयोजन किया गया था । शायद पुस्तकालय के एक  वार्षिक मैगजीन की लोकार्पण होने वाली थी । हरीश भी उपस्थित था । मैगजीन को आम पब्लिक हेतु लोकार्पित  किया गया । हरीश मैगजीन का मुखपृष्ट देख आश्चर्य चकित हो गया -" मुखपृष्ट पर शिप्रा के पुत्र की तश्वीर छपी थी । "

भीड़ में उसे शिप्रा दिखी । क्षमा हेतु इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है  । हरीश ने तपाक से कहा - " आप एक श्रेष्टतम माँ है ।" और शिप्रा कुछ कहे , तब - तक वह  आँखों से ओझल हो गया । एक माँ का कोमल मन हर्षित हो उठा ।  शिप्रा के मन में अमृत का संचार हो चूका था । एक माँ की ममता पिघलने लगी थी । वह पुस्तकालय फिरसे गुंजित होने लगा । 

एक शब्द कडुवाहट ,नफ़रत और  प्यार  को  फ़ैलाने के लिए काफी होते है । अंतर उसके उपयोग में है  । इसकी पीड़ा सभी नहीं , कोई माँ  ही समझ सकती  है । 

Saturday, May 18, 2013

मेरे नैना ...क्यू भर आयें ?

जीवन से मृत्यु का सफ़र सभी के लिए खुशनसीब नहीं होतें । संघर्ष भरी कड़ी का अंत ही तो मृत्यु  है । इन्होने जीवन को  एक कर्मयोगी की तरह जी थी । ऐसे पुरूष विरले ही देंखे थे , जिन्हें कभी गुस्सा आया हो ? किसी को भी मुस्कुराकर स्वीकार करने की शक्ति इनमे थी । बच्चे हो या नौजवान या हमउम्र ...सभी से हंसते हुए व्यवहार ..गजब से थे । ह्रदय में गुस्से की प्रतिशत नाममात्र भी नहीं । मैंने अपने जीवन का बचपन इनके आगोश में ही  विताएं । मुझे  याद है , एक ..... बस एक  बार थप्पड़ मारे थे , वह भी स्कूल जाने के लिए । पिताजी ऐसे थे , जिन्हें एक भी शत्रु नहीं थे । उनकी सक्सियत विरले ही मिलेगी । खुद हम भी उनके कदमो  पर चलने में असमर्थ है । 

पढ़े नहीं । स्कूल नहीं गए थे । रामायण की चौपाई या दोहें सामने बैठे बच्चो को प्यार से सुनाते  थे । किताबे धीरे - धीरे पढ़ लेते थे । कागजातों पर हिंदी में अपनी हस्ताक्षर कर लेते थे । गाँधी जी को देंखे थे हमें उनके बारे में भी बताते थे । उन्होंने कभी भी पैसे नहीं पूछे । निस्वार्थ व्यक्तित्व के धनी । उन्हें गाय - गरू और खेती बहुत प्रिय थे । जब -तक शरीर में दम थे ,खेती को नहीं छोड़ें । 
उनकी बराबरी करने की शक्ति हम दोनों भाईयो में नहीं है । 

पिछले एक वर्ष से वे कमजोर हो गए थे । दावा -दारू चल रहा था । विस्तर पकड़ लिए थे ।  दिनांक ८ अप्रैल २ ० १ ३ को मेरे दादा जी के छोटे भाई का देहांत हो गया । पिताजी ने  घर के अन्दर से ही उनके पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले जाते समय देखा । वे भाव - विह्वल हो गए ।  " काका मुझे छोड़ कर चले गए । "- कह -कह कर रोने लगे थे । इसके उपरांत पिताजी की तबियत और ख़राब होने लगी । खान - पान बंद होने लगे । सभी को आशा की किरण कम नजर आने लगी । मुझे इसकी सूचना मिली । 2 3 अप्रैल 2 0 1 3 को बछिया के पूंछ पकडाने और उसको ब्राह्मण को दान देने की विधि संपन्न कराई गयी । इसके बाद उनकी आँखे और बात - चित बंद हो गयी । 

इस गंभीर समाचार के बाद मैंने अपनी यात्रा शुरू कर दी । 2 5 अप्रैल 2 0 1 3 को ट्रेन पकड़ी । गुंतकल से बलिया जाने में कम से कम 4 8 घंटे लगते है । इधर सभी परेशां थे क्यूंकि उनके काकाजी का क्रियाकर्म 2 5 /2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को होनी थी । डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए थे । यात्रा के दौरान हर घडी की खबर मुझे दी जा रही थी । 2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को इलाहबाद पहुंचा । देखा -मोबाईल का स्क्रीन क्रैक हो गया था । मन में डर पैदा हो गया । वातानुकूलित डिब्बे में अपने बर्थ में मुंह छुपा कर रो दिया था । 

शाम को साढ़े छह बजे बलिया पहुंचा । मेरे बहनोई मुझे लेने के लिए आयें । घर पहुँचाने में बस आध घंटे की दुरी बाकी थी । तभी बहनोई की मोबाईल बजी । बहन का फोन था । फोन रखते ही उनकी आँखे भर आई । माजरा समझते देर न लगी । पिताजी जी मुझसे मिले वगैर प्रस्थान कर चुके थे । रात का अँधेरा , चारो तरफ फैला हुआ था । जो उत्तर - प्रदेश की उन्नति का गवाह था । घर में कदम रखते ही माँ , बहन और अन्य सभी रो पड़े । मै  पिताजी के पार्थिव शरीर से चिपक कर रोने लगा । माँ सुध खोये जा रही थी । अपने ऊपर कंट्रोल किया और माँ को सान्तवना दी की आप के सामने अभी मै हूँ । आप निः फिक्र रहे । 

कितनी विडम्बना थी की 2 5 /2 6 अप्रैल 2 0 1 3 को जब -तक उनके काकाजी का क्रिया कर्म और भोज की प्रक्रिया चली  , उनके प्राण नहीं निकलें ।शायद  पिताजी की आत्मा अपने काकाजी  के रस्म में खलल नहीं डालनी चाहती थी  । सभी कह रहे थे की अंतिम क्षणों में तीन बार भगवान का नाम लिए थे । दुसरे दिन 2 7 अप्रैल 2 0 1 3 को पिताजी के पार्थिव शरीर को अग्नि के सुपूर्त कर दिया गया । कईयों की इच्छा गंगा में परवाह करने की थी । किन्तु माँ ने इच्छा जाहिर कि  की  हमारे पुरखे जिस जगह अग्नि को सुपुर्द हुए है  , वही इनका भी संस्कार होगा । माँ की इच्छा भला कौन टाले  ?  ज्येष्ठ पुत्र के नाते मुझे ही मुखाग्नि देनी पड़ी । बाकी सभी क्रिया कर्म गरूण पुराण के अनुसार पूर्ण हुए । 

कुछ सार्थक मुहूर्त होते है । जो कुछ न कुछ कह जाते है । सभी को इस मृत्यु रूपी सच्चाई का सामना करना है । दुनिया से जाने वाले , जाने चले जाते है कहाँ ? बस अपने कर्मो के पद छाप छोड़ जाते है । 


                                             मेरी रेलवे की नौकरी दिनांक - 2 6 जून 1 9 8 7 । 
                                             मेरे दादाजी की मृत्यु दिनांक - 2 6  जून 1 9 9 6 । 
                                            मेरे पिताजी की मृत्यु दिनांक -2 6 अप्रैल 2 0 1 3 । 
                                             "--------------------------- "-2 6 .                    ?

जीवन की सबसे बहुमूल्य समय गवा दिया था । पिताजी का अंतिम आशीर्वाद से वंचित रहा । यह हमेशा ही खलेगा । मेरे नैना  फिर भर आयें ....फिर भर आयें ......



Friday, April 12, 2013

एक लघु कथा --माँ की ममता पर प्रहार |

लक्षम्मा  झोपड़ी में बैठी बी. .पि.एल चावल के कंकडो को चुन रही थी | जीर्ण शीर्ण सी झोपड़ी और वैसे ही  अंग के चिर  | फिर भी सूर्य की किरण का चुपके से झोपड़ी में आना , उस कड़वी ठण्ड और बरसात  से बेहतर लग रही  थी |

  " लक्षम्मा ..वो लोग आये है |" - उसका पति वीरन्ना बोला | लक्षम्मा धीरे से मुड़ी , उसके मुख पर भय  की रेखाए और शरीर में सिहरन दौड़ गयी | उसके मुख से शव्द नहीं निकल रहे थे  | वश केवल  - "  नहीं  " शव्द ही निकल पायें | देखो ..हमारी  दिन - दशा ठीक नहीं है | चार वेटिया है | जीना  दूभर हो गया है | ऐसे कब तक घुट - घुट कर  जियेंगे | वैसे भी अभी तीन और है |  लक्षम्मा जब - तक कुछ और कहे  , वीरन्ना ने सबसे छोटी दो वर्ष की  विटिया  को उसके नजदीक से खिंच लिया , जो माँ से चिपटी हुयी गहरी नींद में सो रही थी |

उन  व्यक्तियों में से एक  ने वीरन्ना के हाथो  पर  एक नोट का  बण्डल  रखते हुए बोला  - "  गिन लो , पुरे पांच हजार है | " फिर छोटी बिटिया को एक बिस्कुट का पैकेट पकड़ा दिए और वह ख़ुशी से खाने लगी | चलते है ! कह कर उन्होंने छोटी विटिया को गोद में उठा  आगे बढ़ गए  | लक्षम्मा दरवाजे पर खड़ी.. बाएं हाथ से साडी के पल्लू को मुह पर रख ली और दाहिने हाथ को आगे बढ़ाई...जैसे कह रही हो - नहीं .. रुक जाओ ...मेरी विटिया मुझे वापस दे दो | धीरे - धीरे वे दोनों व्यक्ति आँखों से ओझल हो गए |

लक्षम्मा के दोनों आँखों के कोर आंसुओ से भींज गएँ थे  | मुड़ कर पीछे की ओर  देखी | उसका निर्मोही  मर्द पैसे गिनने में व्यस्त था | अचानक वह बोला - ""  अरे ..ये तो पांच सौ कम है और जल्दी से  उनके पीछे दौड़ पड़ा | लक्षम्मा धम्म से जमीन पर बैठ  गयी ..इस आश  में की अब  उसकी बिटिया  वापस आ जाएगी ........